कविता! प्रिय कविता!
कविता! प्रिय कविता..
सुनो!
तुम जानती हो??
मैं तुम्हारी रचयिता!
मैं तुम्हारी सृजनकर्ता!
हूँ नहीं, तुमसे उम्दा,
तुमसे अच्छी..
तुम तो हो मेरे एक क्षण
का नन्हा सा भाव..
कभी प्रेम, कभी निराशा,
कभी क्रोध, कभी घृणा का।
मैं, मैं कहा हूँ सदैव एक सी,
कभी हूँ जड़, कभी हूँ फल,
कभी हूँ फूल,
कभी उदास,नीरस
पतझड़ के वृक्ष की देह।
मगर प्रिय!
तुम हो सदैव एक सी
प्रेम में रमी, प्रेम में रमी!
घृणा से लिप्त, घृणा से लिप्त!
निराशापूर्ण, निराशापूर्ण!
कभी नहीं बदलते तुम्हारे शब्द!
तुम्हारे अक्षर,
तुम्हारे सुर, तुम्हारे ताल!
तुम, तुम मेरी हो,
मुझसे जन्मी हो,
मगर हो भिन्न! मुझसे!
मेरे अस्थिर मन से,
मेरे भीतर से, मेरे बाहर से..
कितनी भिन्न! कितनी भिन्न!
कविता! प्रिय कविता!
तुमको देखती हूँ जब भी,
हर लेती हो मन,
समा लेती हो इसे अपने
भीतर में..
इसके बाहर को ढक देती हो
अपनी अपरिवर्तित प्रकृति से,
तुम कितनी अच्छी हो..
जैसी हो वैसी ही हो..
नहीं करती मुझसे..
मेरे रंग बदलू मन से..घृणा!
जैसे ही आती हूँ, बिठा लेती हो
पास! पोछ देती हो आँसू!
फिरा देती हो सिर पर हाथ
भगा देती हो मेरे क्रोध को..
कहीं दूर..बहुत दूर!
लगा कर सीने से कहती हो,
कोई नहीं है, कोई नहीं..
कोई तुमसे दूर नहीं जायेगा,
सब तुम्हारे हैं, तुम्हारे पास हैं,
मिटा देती हो भय! शंका!
कर देती हो निश्चिंत!
तुम मेरी कृति हो, मुझसे
निर्मित हो..
मगर लगती हो तुम मुझे,
मेरी जननी!
कविता! प्रिय! कविता..
सुनो!
मुझे है तुमसे प्रेम...
घनिष्ट!
~तुम्हारी सुरभि
RICHA SHARMA
16-Apr-2021 06:39 PM
बहुत अच्छी कविता लिखी मेंम
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Surbhi
09-Sep-2021 08:26 PM
धन्यवाद आपका..🙏😊
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